रविवार, 4 जनवरी 2015

सवाल जानकारी का नहीं, सियासत का है!

पोरबंदर के समंदर में संदिग्ध बोट को लेकर कांग्रेस ने शक जाहिर किया, सरकार की मंशा पर सवाल उठाए तो बीजेपी भड़क गई। बीजेपी ने इसे पाकिस्तान को ऑक्सीजन देनेवाला बयान करार दिया। बीजेपी की तरफ से कांग्रेस को जवाब देने के लिए उतरे संबित पात्रा ने कहा कि अगर कांग्रेस नेता अजय कुमार को किसी तरह की शंका थी तो उन्हें मीडिया के जरिए इस तरीके से मामला उठाने के बजाय सरकार से जानकारी मांगनी चाहिए थी।

बीजेपी नेता संबित पात्रा नसीहत के जरिए सियासत की उस महीन लकीर को छूने की बात कह रहे थे, जो अब करीब-करीब मिट चुकी है। जो राजनिति में नैतिकता की तरह सिर्फ कहने और सुनने के लिए है, उससे ज्यादा कुछ नहीं। सियासत में इस तरह के सिद्धांत असल में हाशिए पर लटक रही है।  
कांग्रेस के नए नवेले नेता को पता है कि सरकार से गोपनीय जानकारी लेकर उनका सिर्फ ज्ञान बढ़ेगा। और उन्हें ज्ञान तो चाहिए नहीं है। मीडिया में फुटेज चाहिए। वो सरकार से मिलने वाले ज्ञान से नहीं मिलेगा, कुछ बोलने से मिलेगा। वो भी कुछ लीक से हटकर बोलना पड़ेगा। और उन्होंने ऐसा ही किया। 

ये कोई पहला और आखिरी मौका नहीं है, ये कोई पहले या आखिरी नेता भी नहीं हैं, जिसकी बात सीधे मीडिया में आई हो। इसके बहुतेरे उदाहरण हैं, जिस मुद्दे को पहले बंद कमरे के अंदर  या संसद में निपटाना चाहिए वो टीवी पर ब्रेकिंग न्यूज बन जाता है। ये सिर्फ सरकार और विपक्षी पार्टियों के बीच की बात नहीं है। सियासी पार्टियों के भीतर भी ऐसा होता रहा है। एक बार नहीं अनेक बार। नेताओं की नाराजगी आलाकमान तक पहुंचने से पहले न्यूज रूम तक पहुंच जाती है। 2013 में मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए जाने के बाद आडवाणी की चिट्ठी किस तरह टीवी के स्टूडियो तक पहुंची थी, सब जानते हैं। 2014 में कांग्रेस की करारी हार के बाद कैसे मिलिंद देवड़ा ने एक अखबार को इंटरव्यू देकर राहुल की टीम और उसकी कार्यशैली पर सवाल खड़े किए थे। वो चाहते तो पार्टी के भीतर अपनी शिकायत रख सकते थे। उसके बाद दिग्विजय सिंह ने भी पार्टी अलाकमान से बात करने के बजाय मीडिया में बोलना मुनासिब समझा था। बाद में कांग्रेस के भीतर पार्टी के कामकाज पर सवाल उठानेवालों की फेहरिस्त बनती चली गई। कमोबेश हर दल में ऐसी स्थिति है। हकीकत है कि चर्चा में आने के लिए या बने रहने के लिए नेता खुद अपनी खबर लीक करवाते हैं। 

दरअसल बदलते दौर में सियासत सिर्फ मीडिया के ईर्द-गिर्द घूमने लगी है। संसद के पिछले कुछ सत्र में हुए चर्चे को देखें तो साफ है कि बहुत हद तक मीडिया में ये भी तय होने लगा है कि संसद में किस मुद्दे पर चर्चा होगी। किस मुद्दे पर विपक्ष, सरकार को घेरेगी। सदन में उसी हंगामा होता है जो खबर मीडिया में गर्म रहती है। ये कोई मायने नहीं रखता है कि उससे कई अहम मुद्दा जो लोगों को सीधा प्रभावित करता है, वो हंगामे की भेंट चढ़ जाते हैं।

जाहिर है। मीडिया नेतागीरी की माप बन चुकी है। नेता वही है, जो टीवी पर दिखता है। जो टीवी पर बोलता है। जिसकी तस्वीर हर अखबार के पहले पन्ने पर छपती है। वही बड़ा नेता है। पार्टी में पद भी उसी को मिलता है। उसी की पूछ भी होती है। लोग उसे ही पहचानते हैं। गांव में घूमनेवाले नेता को कौन पूछता है। जनता से सीधे सरोकार रखनेवाले, उनसे मिलने वाले नेता को कौन जानता है। और ये बात वो तमाम नेता बखूबी जानते,समझते हैं, सीधा ऊपर से टपके हैं। उन्हें पता है कि संसद में बयान से ज्यादा टीवी डिबेट में जवाब मायने रखता  है। संसद में मौजूदगी से बेहतर है कि टीवी पर खिड़की में बैठकर चिल्लाओ। थेथरई करो। पार्टी में कद बढ़ेगी। ये बात संबित पात्रा साहब खुद भी बेहतर जानते  हैं।

ऐसे में अगर कांग्रेस नेता अजय कुमार से ये उम्मीद करते हैं कि संदिग्ध बोट को लेकर मीडिया में बोलने के बजाय वो सरकार से इसपर गोपनीय जानकारी मांगते, ये बेईमानी होगी। क्योंकि उन्हें सियासत करना है और 2015 नेता बनने का पैमाना मीडिया के जरिए चर्चा में बने रहना है, ना कि बंद कमरे में सवाल-जवाब करना।

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