शनिवार, 17 जनवरी 2015

एक दलित मुख्यमंत्री के नाम खुली चिट्ठी

 मुख्यमंत्री मांझी साहब। 

इंसाफ के नाम पर इतना क्रूर मजाक भी कहीं होता है क्या। आपके राज में न्याय के नाम पर इतना बड़ा अन्याय हुआ है। वो भी दलितों के साथ। आपको आह तक नहीं आई। क्या हो गया है आपको साहब। कैसी सियासत कर रहे हैं आप। ऐसी उम्मीद नहीं थी। मैं ये चिट्ठी आपके नाम इसलिए लिख रहा हूं कि क्योंकि जिसकी गवाही से न्याय मिलता, आपकी पुलिस उसे भी सुरक्षा नहीं दे पाई। भरोसा तक नहीं दिला पाई। उसका मुंह बंद कर दिया गया। वो डरा हुआ है। शंका और अशंकाओं के बीच उसकी जुबान बदल गई। गवाहों के बोल बदले तो फैसले बदल गये। शर्म करूं या गुस्सा। समझ में नहीं आता।

उस रोज किसी का बेटा मारा गया था। किसी की मां मार दी गई थी। किसी की बीवी। किसी के बाप का कत्ल कर दिया गया। रात के अंधेरे में बहुत बड़ा पाप हुआ था साहब। इंसानियत को सूली पर लटका दिया गया था । आपको भी पता है। मुझसे बेहतर पता है। आपके गांव से चंद किलोमीटर की दूरी पर ही ये सबकुछ हुआ था। महिला। बच्चे। बुजुर्ग। जवान। किसी को नहीं बख्शा था हैवानों ने। घर में घुसकर काट दिया था। पूरा गांव खून-खून हो गया था। अगर मुझे सही से याद है तो उस वक्त आप ने भी झंडा उठाया था। न्याय के लिए। लेकिन ये क्या। आप जब न्याय दिलाने के काबिल हुए तो कुछ नहीं। यकीन मानिए। आपका ये चुप रहना अखर गया साहब। 

सोचिए साहब उन लोगों के बारे में। जो डेढ़ दशक तक न्याय का इंतजार करते रहे। कर्जा लेकर अदालत की चौखट तक दौड़ते रहे। कि उन्हें न्याय मिलेगा। कि उनके अपनों का हत्यारा फांसी पर लटकेगा। कि उनके अपनों की आत्मा को शांति मिलेगी। लेकिन कुछ नहीं हुआ। 

15 बरस पहले सर्द रात में। समाज का स्याह सच बेआबरू हो गया था। 15 बरस बाद न्याय बेलिबास हो गया। आपको नहीं लगता है कि शंकर बिगहा नरसंहार में 23वां कत्ल 13 जनवरी 2015 को हुआ। सबसे बड़ा कत्ल। इंसाफ का कत्ल। उम्मीदों का कत्ल। भरोसे का कत्ल। सीएम साहब। कभी आपके मन में ये सवाल नहीं होता है कि किन लोगों ने इतना बड़ा नरसंहार किया। उन गरीबों के हत्यारे कौन थे। कानून को कब्रगाह में धकेलनेवाले कौन थे। यकीनन होता होगा साहब। होता होगा। हर इंसान की तरह आपके सीने में भी दिल होगा और वो धड़कता होगा तो जरूर ये सवाल भी उठते होंगे। लेकिन आप कुछ नहीं कर पा रहे। अगर नहीं कर सकते तो आपका सरकार होना बेकार है। 

सुने थे कि कानून अंधा होता है। लेकिन देख लिया। वाकई। ऐसा लग रहा है कि कानून सिर्फ अंधा नहीं मरा हुआ होता है। आपके जैसे महान लोगों की सियासत ने इसे मार दिया है। ऐसा नहीं होता तो सूंघकर भी एक कातिल तो जरूर पकड़ा जाता। लेकिन वो भी नहीं हुआ। हमारा कानून। आपकी पुलिस इतना तक पता नहीं लगा पाई कि  22 गरीब आखिरी कैसे मर गए। आसमान से कोई शैतान उतरा था या धरती चीरकर कोई कातिल बाहर आया था। सच मानिए साहब। अच्छा नहीं लग रहा है।  

हाहाकार मच जाना चाहिए था अभी। आपको कुर्सी छोड़कर अदलात के सामने सड़क पर बैठ जाना चाहिए था। उन 22 परिवारों  के लिए आपको कुछ भी करना चाहिए था। ताकि हत्यारे को फांसी मिलती। चाहे वो कोई भी हो। लेकिन सियासी हिसाब किताब में आप इतने उलझ चुके हैं कि आपको फुर्सत नहीं है। वक्त निकालिए साहब। नहीं तो इतिहास आपको माफ नहीं करेगा। 

नमस्कार!

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