गुरुवार, 22 जनवरी 2015

ये तो मजे हुए 'मांझी' हैं!

बिहार की सियासत बहुत ही दिलचस्प मोड़ पर खड़ी है। नीतीश कुमार के लिए मांझी ऐसी हड्डी बन चुके हैं, जिसे ना उगलते बन रहा है, ना निगलते। फिर से रिश्ता सुधरने के बाद अपने प्यारे छोटे भाई के लिए लालू यादव मांझी को घुड़की भी दे रहे हैं। चेता भी रहे हैं और समझा भी रहे हैं। सुशील मोदी और पासवान मंद-मंद मुस्कुराते हुए बाहें फैलाये मांझी के स्वागत के लिए खड़े हैं। और इस सब के बीच मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी अपना सियासी दांव साध रहे हैं। क्योंकि वो अब समझने लगे हैं कि नीतीश और उनके बीच इतनी मोटी दीवार खड़ी हो चुकी है, जिसे तोड़ना नामुमकिन नहीं तो मुश्किल बहुत ज्यादा  है।

नीतीश कुमार ऐसा कुछ नहीं करना चाहते हैं जिससे उनके खुद के बनाये "महादलित" वोट बैंक पर इसका असर पड़े। वो खुद मांझी को सत्ता से बेदखल  नहीं करना चाहते हैं। नीतीश जानते हैं कि अगर वो ऐसा करेंगे तो दलितों में उनको लेकर गलत संदेश जाएगा। जाहिर है इससे उन्हें नुकसान है। और मांझी इसका सीधा फायदा उठा ले जाएंगे। इसलिए वो अपने  प्रवक्ताओं के जरिए मुख्यमंत्री को बेइज्जत करवा रहे हैं।  बेइज्जत इसलिए क्योंकि एक मुख्यमंत्री के सामने नीरीज कुमार और अजय आलोक जैसे प्रवक्ताओं की कोई हैसियत नहीं है। बेइज्जत इसलिए क्योंकि जब नीतीश मुख्यमंत्री थे तो किसी की प्रवक्ताओं की हिम्मत नहीं थी कि वो चूं तक करें। यहां तक कि पार्टी अध्यक्ष शरद यादव खुद हाशिए पर थे। ऐसे में अगर पार्टी के प्रवक्ता मुख्यमंत्री पर कैमरा के सामने, टीवी पर नसीहत दे रहे हैं तो जाहिर है कि इसमें नीतीश की सहमति है। 

इस सब के बीच  एक मजे हुए नेता की तरह मांझी भी दांव पर दांव खेल रहे हैं। मांझी खुद कुर्सी छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं। वो चाहते हैं कि नीतीश कुमार उन्हें जबरन कुर्सी से नीचे उतारे। ताकि खुद को सियासी शहीद साबित कर दलितों के सामने जाएं और उनका सिरमौर बन जाए। कहीं न कहीं मांझी की ये इच्छा है कि जितनी जल्दी हो सके, नीतीश उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटा दें। इससे मांझी को फायदा ये होगा कि उन्हें दलितों की सहानुभूति लेने में पूरा वक्त मिलेगा। यही वजह है कि पार्टी की चेतावनी के बावजूद वो बयान देते जा रहे हैं। हद तो ये है कि अब सीधे तौर पर वो नीतीश को चैलेंज कर रहे हैं। खुद को नीतीश से बेहतर मुख्यमंत्री साबित कर रहे हैं। मांझी का ये कहना कि नीतीश के दौर में 80 फीसद पैसे की लूट हो रही थी, मैंने उसे कंट्रोल किया। सनद रहे कि मांझी का  नीतीश को निशाना बनाकर दिया गया ये न तो कोई पहला बयान है और न ही आखिरी। आगे ये जुबानी फायरिंग और तेज होने वाली है।

कृपा से कुर्सी हासिल करनेवाले मांझी की हिम्मत सात महीने में ही सातवें आसमान पर यू हीं नहीं है। दरअसल पार्टी का एक बड़ा धड़ा जो लालू की पार्टी आरजेडी के साथ जेडीयू के विलाय के खिलाफ है, वो मांझी को शह दे रहा है। ये बात नीतीश भी अच्छी तरह जानते हैं। लिहाजा वो अपने प्रवक्ताओं के जरिए उन बागी मंत्रियों को भी चेता रहे हैं और पार्टी छोड़कर चले जाने को भी कह रहे हैं। यानी जनता दल यूनाइटेड अब भीतर से बिखर चुका है। कभी भी जमीन छितर-बितर दिख सकता है।

इस सब के बीच बीजेपी बड़ा दांव चलने के फिराक में है। वो नीतीश को बड़ा झटका देना चाहती है। उसके लिए इससे बेहतर मौका मिल नहीं सकता है। बीजेपी को इसमें पासवान का पूरा सहयोग है। दोनों मिलकर मांझी को अपने पाले में करना चाहते हैं। मांझी अगर मोदी के मंत्री रामकृपाल यादव से मिलने जाते हैं तो जरूर इसके बड़े सियासी मायने है। जिस मोदी के लिए नीतीश ने एनडीए छोड़ दिया, अगर मांझी उसी मोदी की तारीफ करते हैं, उनसे मिलना चाहते हैं तो ये सबकुछ ऐसे ही नहीं हो रहा है। जबकि लालू के बागी साले साधु यादव, जिनकी कोई खास सियासी हैसियत नहीं है, उससे मिलने पर पार्टी ने मांझी को खरी खोटी सुनाई थी। बावजूद उसके वो रामकृपाल यादव तक से मिलने पहुंच गए। मुलाकात के बाद बात निकलकर सामने आई कि कई सियासी मुद्दे पर चर्चा हुई है। यानी संकेत साफ है।

जो हालत बन चुके हैं उसमें शायद ही अब मांझी और नीतीश एक हो पाए। ऐसी स्थति में या तो मांझी अपनी अलग पार्टी बनाकर बीजेपी के साथ आ सकते हैं या फिर बीजेपी या लोक जनशक्ति पार्टी में शामिल हो सकते हैं।  जो भी होगा बड़ा मजेदार होनेवाला है। क्योंकि जो नीतीश कुमार डंके की चोट पर दूसरी पार्टी को तोड़ देते थे आज उनके खुद का कुनबा हाथ से फिसलता जा रहा है। अहंकार और सत्ता की चाह में वो इसे बचा नहीं पा रहे हैं। बस वक्त का इंतजार है।

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