शनिवार, 28 फ़रवरी 2015

सुनो कल्पना

सुनो कल्पना
आज तुम्हारे पापा बहुत उदास थे। तुम्हारी मां को देखकर लग रहा था कि उन्होंने कई दिनों से ठीक से खाना नहीं खाया है। तुम्हारे घर का माहौल ऐसा इस से पहले कभी नहीं लगा था।

इतने दिनों से जा रहा हूं तुम्हारे घर। पहली बार बड़ी अजीब सा अहसास हुआ। घर के हर कोने में खामोशी पसरी हुई थी। उदासी की चादर में पूरा माहौल लिपटा हुआ था। पता है कल्पना। पहली बार ऐसा हुआ, जब मैं तुम्हारे घर पहुंचा तो अंकल के होंठों पर मुस्कुराहट नहीं था। उन्होंने कुछ बोला नहीं। उनके चेहरे पर खुशी नहीं थी।

मैं खुद बैठ गया। उन्होंने हालचाल भी ऐसे पूछा जैसे रस्म अदायगी कर रहे हों। ऐसा तो आज तक कभी नहीं हुआ था।

पहली बार ऐसा हुआ कल्पना कि तुम्हारी मां ने मुझे देखा और बिना हालचाल पूछे भीतर के कमरों की तरफ चली गई। बहुत ही अजीब सा लग रहा था। जिस घर को मैं हमेशा अपने घर की तरह समझा वहां बेगाना सा लग रहा था।

अंकल को देखकर क्यों ऐसा लग रहा था कि उनके दिल में बहुत बड़ा तूफान अटका हुआ है। जिसे खुद उन्होंने रोक कर रखा है। अगर बाहर निकल आया तो पता नहीं क्या होगा।

चाची चाय बनाकर लाई। मैंने चाय पीना शुरू किया। इतने सालों में पहली बार आज लग रहा था कि जरूरत से ज्यादा चीनी रहने के बावजूद चाय में मिठास नहीं है। जैसा माहौल कड़वा था, वैसी चाय भी कड़वी लग रही थी। इधर-उधर आंखें भटकाते हुए मैंने चाय पीनी शुरू कर दी।

जिस घर में कदम रखते ही मेरे सारे गम, सारा दुख दूर हो जाता था। जहां हमेशा लोग खिलखिलाते रहते थे। जहां मैं अपना हर सुख दुख अंकल और चाची को ऐसे सुनाता था जैसे वो मेरे भी मां-पापा हों। उन्होंने अपने बेटे की तरह प्यार दिया था मुझे। तुम जानती हो इसे।

जहां चारो तरफ खुशियां बिखरी रहती थी, वहां खामोशियों की मोटी पड़त जमी हुई थी।जिनसे मैं छोटी-छोटी बात पूछ लेता था, उनसे इतनी बड़ी खामोशी का राज नहीं पूछ पा रहा था मैं। बहुत हिम्मत चाहिए थी इस खामोशी को तोड़ने के लिए। प्याली की पूरी चाय खत्म हो गई। लेकिन कहीं आवाज नहीं आई।

आखिर सन्नाटे को अंकल ने तोड़ा। पूछा- कैसे हो। चेन्नई से कब आए। सब ठीक तो है।

मैंने कहा- हां अच्छा हूं। कल रात में आया।

फिर खामोशी छा गई। फिर मैंने पूछा- कल्पू कैसी है?

कोई उत्तर नहीं मिला। ऐसा लगा जैसे किसी ने सुना ही नहीं। मैंने फिर से पूछा- अंकल कल्पू कैसी है, उसका फोन आया था कि नहीं ?

अंकल ने धीरे से जवाब दिया। कल्पना अब बड़ी हो गई है। बहुत बड़ी। बहुत खुश है।

मुझे लगने लगा कि कुछ गड़बड़ है। क्योंकि एक तो इतने दिनों पहली बार मैंने अंकल के मुंह से तुम्हारा पूरा नाम सुना था कल्पना। इससे पहले जब भी अंकल तुम्हारा नाम लेते थे, बस कल्पू ये, कल्पू वो, कल्पू ऐसा, कल्पू वैसा...बस कल्पू ही बोलते थे। और दूसरा उनकी आवाज में दर्द था।

मैंने तुंरत अगला सवाल कर दिया- अंकल समझा नहीं, बड़ी हो गई मतलब ?

हां, एक बार तो मैं भी नहीं समझा था। कल्पना मेरी बेटी है इसके बावजूद मैं नहीं समझ पाया कि वो बड़ी हो गई है। इतनी बड़ी कि खुद अपने अच्छे-बुरे का ख्याल रखने लगी है अब। इतनी समझदार हो गई है मुझे अहसास ही नहीं हुआ इसका।

अंकल बोलते चले गए।

हम तो आज भी उसे वही बच्ची समझते थे जिसे मैंने ऊंगली पकड़कर चलना सिखाया था। उसकी हर जरूरतों को अपना समझते हैं। समझे भी क्यों नहीं। वो मेरी इकलौती बेटी है। जो है सब वही तो है। दो बेटों के बाद वो एक बेटी हुई थी। कितने लाड़-प्यार से पाला उसे। उसके मुंह से निकलता नहीं था कि हम उसे पूरा कर देते थे। कई बार उसकी मां ने मुझे टोका था- कि आप अपनी बेटी को बहसा रहे हैं। लेकिन मैं हर बार नजर अंदाज कर देता था। बेटा-बेटी में क्या फर्क। बड़ी होगी तो खुद समझ जाएगी।

तुम्हारे पापा कहते चले गए।

पता है जब उसने पढ़ाई के लिए दिल्ली जाने की बात कही थी तो तुम्हारी चाची ने मना कर दिया था। रोहित और सुमित ने भी कहा था कि रांची में ही पढ़ेगी तो क्या होगा। सब अड़ गए थे। लेकिन मैंने जिद कर के उसे दिल्ली पढ़ने के लिए भेजा था। क्योंकि मैं चाहता था कि वो बड़ी होकर कुछ करे। अपने पैरों पर खड़े हो सके। कुछ ऐसा करे जिससे हमारे खानदान का नाम और ऊंचा हो। मैंने उसे हर वो काम करने की आजादी दी जो वो चाहती थी। जो उसके कैरियर के लिए बेहतर हो सके। जो मैंने रोहित और सुमित को करने दिया। लेकिन वो इतनी आजाद हो जाएगी इसका अहसास नहीं था। मैं समझ नहीं पाया कि वो ये सब कर जाएगी।

इतना कहते कहते अंकल की आंखें डबडब गई। गला रुंधने लगा उनका। गरदन झुक गई। बगल में बैठी चाची ने उन्हें जाकर ऐसे पकड़ लिया जैसे कोई पेड़ गिरने लगा हो और उसे कोई मजबूती से थामने की कोशिश कर रहा हो । अपनी आंखों के आंसू को पल्लू से पोंछते हुए उन्हें संभालने लगी। छोड़िये न, जो होना था वो हो गया।

पता है कल्पना। जितना मैं तुम्हारे पापा और मम्मी को समझ पाया, मैंने यही महसूस किया कि उन्होंने ऐसे ही तुम्हारा नाम कल्पना नहीं रख दिया था। वो तुमको लेकर बहुत बड़ी ख्वाब देख रहे थे। कल्पना की उड़ान में बड़े-बड़े पंख लगाना चाहते थे वो। वे उस पंख को पकड़कर उड़ना चाहते थे। आसमां से लोगों को बताना चाहते थे कि देखो ये मेरी बेटी है। मेरी प्यारी बेटी। उसने जो चाहा करने दिया। वो तुम्हें एक मिसाल बनाना चाहते थे कि बेटी को भी अपने सपने में पंख लगाने दीजिए, वो बेटे से कमतर साबित नहीं होगी।

लेकिन आज तुम्हारा पूरा परिवार उस कल्पना की उड़ान से गिरकर लहुलूहान हुआ पड़ा था। छटपटा रहा था। तुम्हारे मां और पापा दोनों एक-दूसरे को संभाल रहे थे। लेकिन जितना एक-दूसरे को समेटने की कोशिश कर रहे थे, उतना ही बिखरते जा रहे थे।

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