शनिवार, 7 फ़रवरी 2015

'अंधभक्ति' का नशा !

नशा मिजाज को अपने आगोश में समेट चुका था। दिन और रात में फर्क मिट चुका था।फासले पट चुके थे। वो जुनूनी बन चुका था। वो सोच रहा था कि अब सबकुछ बदल जाएगा। सबकुछ उसी की मर्जी से होने वाला है। जो अब तक कभी नहीं हुआ। वो होगा। चंद मिनटों की देर है। उसे वो सब कुछ मिल जाएगा, जो कभी ख्वाहिशें बनकर उसके जेहन को खिलखिलाता रहता था तो कभी अफसोस बनकर उस के मन को मरोड़ता रहता था।

उस पल को पाने के लिए वो कुछ भी करने को तैयार था। हर हद लांघ देना चाहता था।कंधे पर पड़नेवाले हर हाथ को झटका रहा था। हर आवाज से ऊपर खुद को बुलंद कर रहा था। कोई फर्क नहीं। कोई कुछ भी कहे। उसे इस बात का बिलकुल इल्म नहीं था कि वो आत्मविश्वास के सर्वोच्च शिखर को छू कर कब का आगे निकल चुका है। उसे तो बस वही याद है जो वो तोता की तरह रट्टा मार लिया है।

मिलेगा। जरूर मिलेगा। खुशफहमी पाराकाष्ठा पर थी। उसे ना मिलने वाले हर तर्क का काट उसके पास था। उससे होनेवाले हर सवाल का जवाब उसके पास था। वो प्लेटो से बड़ा तर्कशास्त्री बन चुका था। आर्यभट्ट से भी बड़ा गणितज्ञ। हर समीकरण उसकी जुबान पर था।

वक्त बीत रहा था। नशा कायम था। न हट रहा था। न छंट रहा था। अपनी जकड़ और मजबूत बना रहा था। वो इस बात से बेफिक्र था कि उसकी दीवानगी अब बेड़ियां बन चुकी है। वो गुलाम बन चुका है। खैर। वो उस वक्त को पाने को आतुर था।

मदहोशी में डूबे मुट्ठीभर लोगों की भीड़ में वो बैठा हुआ था। खुद को सबका सरदार समझ रहा था। घड़ी की टिक टिक के साथ वक्त बीतता जा रहा था। समय अपनी गति से भाग रहा था। स्याह रात का अंधेरा छंटने लगा था। सुबह दस्तक देनेवाली थी। वो अब तक मुगालते में था। 

धीरे-धीरे उजाला फैलने लगा। सूरज की किरणें मोटी हो चुकी थी। उसके कपार पर छोटी-छोटी पानी की बूंदे टघरने लगी थी। कुछ बूंदे आंखों में गिरी तो कड़वाहट महसूस हुई। उसने आंखें मिचमिचाई। लेकिन कड़वाहट कम हो नहीं रही थी। हां, आंखों में घुसे उस तीखे पानी से नशा जरूर उतरने लगा था। वो धूप से दूर भगना चाहता था। लेकिन घुप्प अंधेरे से भरे कमरे तक उसका पैर नहीं पहुंच पा रहा था। पूरा देह उसका पानी से नहा चुका था। बदहवास सा हो चुका था। उसका सारा नशा उतर चुका था। उसने चारो तरफ देखा। कोई कहीं नहीं था। वो अकेला बैठा हुआ था। बिल्कुल अकेला। 

उसे गुस्सा आ रहा था। खुद पर। शर्म भी हो रही थी। अफसोस भी। तमतमाया हुआ था।लेकिन खुद से हारा हुआ था। किसको क्या कहता। तभी उसे ध्यान आया। कुछ जरूरी काम उसका इंतजार रहा है। घर की तरफ चल दिया। लुटा-पिटा सा। हारा-हारा सा। हां, कुछ लोग बड़ी अजीब नजरों से उसकी तरफ ताक रहे थे। कुछ सहानुभूति भरी नजरें। कुछ तंज भरी। वो सबकुछ समझ रहा था। बस, चुपचाप आगे बढ़ता जा रहा था।

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