शुक्रवार, 13 मार्च 2015

शरद बाबू...शर्म है !

वो समजावाद के स्वयंभू पुरोधा हैं। खुद को बराबरी के बहुत बड़े पैरोकार कहते हैं। सामंती सोच के खिलाफ लड़कर सियासत की हस्ती बने हैं। डॉक्टर लोहिया के स्कूल के सामार्थवान विद्यार्थी। लेकिन महिलाएं आज भी उनके लिए पैरों की जूती से ज्यादा नहीं है। पुरुषों के लिए देह का सुख भोगने का साधन है। औरतों को मजा लेने की वस्तु मानते हैं। 

गांधी अगर जिंदा होते तो उनकी बेतुकी बातें सुनकर कराह रहे होते। डॉक्टर अंबेडकर सिसकियां भर रहे होते। जेपी और लोहिया माथा पकड़कर बैठ गए होते। क्योंकि उन्हीं का चेला उच्च सदन में निम्नता की सारीं सीमाएं लांघ रहा था। महिलाओं के नाम पर मर्यादा को सूली पर लटका दिया था। 

राज्यसभा में जब इंश्योरेंस बिल पर चर्चा हो रही थी। तो शरद यादव नारी दर्शन का चित्रण करने लगे। सौंदर्य की गहराई में ऐसे घुसे कि मर्यादा की लकीर कब पार गए, पता ही नहीं चला। देश की आजादी से एक महीना पहले पैदा होने वाले 68 साल के शरद यादव हाथ चमका-चमका कर दक्षिण भारतीय महिलाओं के रंग, शरीर की बनाटव और कसावट का वर्णन करने लगे। ऐसा चित्रण तो शायद कामदेव ही करते। एक महिला सांसद ने टोका तो वरिष्ठता का हवाला देकर ललाट चमका लिया। हद देखिए कि शरद यादव का विरोध करने के बजाय संसद में बैठे ज्यादातर सदस्य बेशर्मी पर हंस रहे थे। ये हमारे देश के माननीय सांसद हैं।

ऐसा नहीं है कि शरद यादव महिलाओं को लेकर पहली बार संसद में इतनी बेहूदी बात कर रहे हों। उनके महिला विरोधी जज्बात कई बार छलक चुके है। निर्भया कांड के बाद जब रेप के खिलाफ कड़े कानून की बात हो रही थी कि शरद यादव ने तंज कसते हुए कहा था कि ऐसा कानून मत बनाओ की अपनी पत्नी को घूरने पर जेल जाना पड़ा।

जब पूरा देश आक्रोश में था, तभी उन्होंने ब्रह्मचर्य को पाखंड घोषित कर दिया था। सेक्स को स्वभाविक क्रिया बताया। उन्होंने अपनी बात को पुख्ता करने के लिए कहा था कि जैसे हम खाते हैं। पीते हैं। सांस लेते हैं। वैसे ही सेक्स भी जरूरी है। 15 दिन में एक बार तो चाहिए। तब शरद यादव की उम्र 66 साल थी।

महिला आरक्षण के सबसे बड़े विरोधियों में शरद यादव का नाम ऊपर की सूची में है।सदन से सड़क तक खुलकर गुस्से का इजहार कर चुके हैं। संसद में जब बिल पेश हुआ तो शरद यादव ने इतना तक कह दिया कि 'परकटी महिलाओं' को सदन में लाने की कोशिश हो रही है।

8 मार्च को ही हमने महिला दिवस मनाया था। बड़ी-बड़ी बातें की थी। माननियों ने महिलाओं के सम्मान में क्या-क्या नहीं कहा था। देखिए कि 6 दिन के बाद ही महिलाओं को लेकर उनकी सोच बेलिबास हो गई। यकीन मानिए, संसद में बैठे ऐसे लोगों के ओछे विचार के बीच नारी सशक्तिकरण और बेटी बचाओ जैसी बातें ढकोसला लगती है।

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