शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

याकूब भक्तों के हित में जारी

जो लोग 1993 मुंबई धमाकों के गुनहगार याकूब मेमन को बचाने के लिए अंतिम वक्त तक लड़ते रहे, उन्हें अन्तत: निराशा हाथ लगी। दफ्तर में। चौराहे पर। बस में। ट्रेन में। फेसबुक पर। ट्वीटर पर। ब्लॉग पर याकूब की फांसी के खिलाफ चर्चा की। आप लोगों ने अथक प्रयास किया। लेकिन आप सफल नहीं हो पाए। यकीनन आपलोग बड़े बुद्धिजीवी टाइप के हैं। इसालिए एक देशद्रोही को, 257 लोगों के गुनहगार को बचाने की कोशिश में अंत तक जुटे रहे। जाहिर है आपलोग ये सोच रहे होंगे कि याकूब की फांसी से मानवाधिकार की रक्षा नहीं हो पाई। धर्मनिर्पेक्षता का सवाल है। उससे ज्यादा आपलोगों को ये लग रहा होगा कि किसी एक शख्स को फांसी पर चढ़ा देने से न्याय कैसे मिल सकता है। जुर्म कैसे खत्म हो सकता है। आपकी चिंता जायज है। आपमें से कुछ लोग आतंकी अफजल गुरू को लेकर भी परेशान हुए थे। लेकिन किसी ने आपलोगों की बातें नहीं सुनी। मानवाधिकार को फांसी पर लटका कर मिट्टी के नीचे दफन कर दिया। आतंकी कसाब को जब फांसी दी गई थी, दर्द तब भी आप लोगों को हुआ था। लेकिन चूकी हो पाकिस्तानी था इसलिए आपलोगों में थोड़ी हिचकिचाहट थी। लेकिन मुझे यह याद नहीं है कि जब बलात्कारी धनंजय चटर्जी को फांसी पर लटकाया जा रहा था तो आपलोगों ने चिंता की थी या नहीं। हालांकि वो ट्वीटर और फेसबुक का दौर नहीं था। टेलीविजन पर भी चिल्लम पों नहीं होता था। लेकिन आप मानवाधिकार और धर्मनिर्पेक्षता को लेकर जागरूक रहे हैं तो दोस्तों के बीच, स्कूल, कॉलेजों में जरूर आवाज उठाई होगी। दुर्भाग्य से उस वक्त कैंडल मार्च का अविष्कार नहीं हुआ था। खैर। आपकी चिंता का सम्मान होना चाहिए। आप जैसे लोग देश को बड़े भाग्य से मिलते हैं। जो देशद्रोहियों को, हत्यारों को, बलात्कारियों को बचाने के लिए भी मुहिम चलाते हैं। जानता हूं कि आपलोग याकूब की फांसी के बाद बेचैन हैं। ठीक से सो नहीं पाए हैं। धर्मनिर्पेक्षता आहत है। मानवाधिकार की रक्षा नहीं कर पाए। आप लोगों से विनम्र अपील है कि दिल्ली गैंगरेप के गुनहगारों को बचाने के लिए अभी से मुहिम शुरू कर दें। ताकि गुनहगारों की जान भी बच सके और आपका प्रायश्चित भी हो जाए। हालांकि जुर्म दोनों का अलग था। लेकिन कानून के नजर में गुनहगार दोनों हैं। अगर चार जिंदगी आप बचा लेंगे तो याकूब की आत्मा को जरूर शांति मिलेगी। ट्वीटर, फेसबुक पर बहुत हो गया। मुंबई और दिल्ली में आपलोग जहां भी हैं, याकूब की याद में एक कैंडल मार्च जरूर निकालिए। और हां, आप में से कई लोग इस बात को लेकर आक्रोशित हैं तो फलां को अब तक फांसी नहीं दी, फलां को फांस से दी। ये राष्ट्रहित के लिए चिंता का बड़ा विषय है। हर किसी को एक साथ ही फांसी होनी चाहिए। नहीं तो किसी को नहीं हो। दूसरी बात, आपलोग इंसाफ की बात कर रहे थे तो जाहिर है किसी को फांसी पर लटका देने से किसी पीड़ित के मां-बाप, भाई-बहन या बेटा-बेटी या पति-पत्नी की जिंदगी वापस नहीं आ जाती है। ये भी सही है कि किसी की हत्या या बलात्कार करनेवालों को जेल में बंद कर देने से न तो जिंदगी वापस मिल जाती है और न ही इज्जत। ये कानून ही गलत है। व्यवस्था ही चौपट है। आपलोग चूकि बहुत ही जागरूक, दूरदर्शी किस्म के आदमी हैं। इसलिए आपलोगों से उम्मीद की जाती है कि देश से इस तरह के कानून को खत्म करने के लिए भी कुछ प्रयास करेंगे।

धन्यवाद

शुक्रवार, 24 जुलाई 2015

तो अब साबिर अली देशभक्त हैं !

इंतजार का फल मीठा होता है। साबिर अली को भी मीठा फल गया। बीजेपी ने राष्ट्रभक्त का सर्टिफिकेट दे दिया। गरदन में अपना भगवा गमछा लपेट दिया। फुलों का गुलदस्ता देकर अपना लिया। साबिर भी यही चाहते थे। डेढ़ बरस पहले जल्दबाजी में थे। नकवी में लंगड़ी मार दी। ऐसे गिरे कि होश आते-आते डेढ़ बरस लग गए। खैर , देर आए। दुरुस्त आए। अब किसी को शिकवा नहीं है। साबिर के लिए नकवी बड़े भाई जैसे हैं। गिरिराज सिंह के लिए साबिर अली एक सच्चे देशभक्त हैं। दूरदर्शी अमित शाह और भूपेंद्र यादव के लिए फायदे का सौदा। बड़े नेताओं ने फैसला किया तो छुटभैय्ये अब जय जयकार करने लगे हैं। कल तक टीवी स्टूडियो में बैठकर एक-दूसरे की बखिया उकेर रहे थे। अब पार्टी दफ्तर से लेकर चुनावी मंच पर एक दूसरे से गलबहियां करेंगे। यही सियासत है। यही सच है।

साबिर अली सधे हुए नेता हैं। रामविलास पासवान के बंगले से निकले थे, तो पहचान बनी थी। रामविलास की सियासी पहचान मलीन होने लगी तो साबिर साहब ने नीतीश का दामन थाम लिया। राज्यसभा सांसद बन गए। टीवी स्टूडियो में बैठकर विरोधियों पर तीर चलाने लगे। नीतीश जब मोदी से अलग हुए थे तो बहुत खुश हुए थे साबिर साहब। गुजरात दंगों का एक-एक आंकड़ा रट्टा मार लिया था। सब जुबान पर था। बीजेपीवालों की बोलती बंद कर देते थे। लेकिन लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार ने साबिर साहब को चुनाव लड़ने की तैयारी करने को कहा तो विदक गए। चुनाव लड़ने के लिए तो कभी राजनीति की नहीं। जानते थे कि जमानत जब्त हो जाएगी। टीवी पर बोलकर। पैसा खर्चकर। सियासत में टिकने की ख्वाहिश लेकर मैदान में उतरे थे। लेकिन नीतीश माने नहीं। मन खट्टा हो गया। पार्टी छोड़ दी। हवा का रुख भांप लिया। मौकापरस्ती में साबिर साहब ने भी अपने नाम की एक लकीर खींच दी। मोदी का प्रचार करने के लिए मुरेठा बांधकर तैयार हो गए। लेकिन नकवी ने खेल बिगाड़ दिया। साबिर अली भी जिद्दी निकले। किसी दूसरी पार्टी की तरफ मुंह नहीं ताका। जाएंगे तो बीजेपी में। करीब डेढ़ बरस की कड़ी मेहनत के बाद सफलता मिली। आतंकी से रिश्ते के आरोप में निकले थे। सच्चे देशभक्त मुसलमां बनकर लौट आए हैं।

साबिर अली बिहार में विधानसभा चुनाव नहीं लडेंगे। ये तो तय है। अगर चुनाव ही लड़ना होता तो नीतीश के साथ रहते। खैर, साबिर अली खुद भी जानते हैं कि उनका कोई जनाधार नहीं है। अपनी बदौलत वो 10 हजार वोट भी बमुश्किल इकट्ठा कर पाएंगे। लेकिन बीजेपी के रणनीतिकार इससे आगे की सोचते हैं। उन्हें लगता है कि कुछ मुस्लमानों को पार्टी में जोड़ने से बिहार में उनकी छवि बदलेगी। मुस्लमानों का कुछ वोट इनके हिस्से भी आएगा। लेकिन बीजेपी की ये गलतफहमी है। साबिर अली जैसे नेताओं को पार्टी में रहने-ना रहने से बड़ा फर्क नहीं पड़ता है। लगता है कि बीजेपी ने जल्दबाजी कर दी। बीजेपी को तो साबिर अली से ही सीखना चाहिए था। इंतजार करना चाहिए था। लोकतंत्र के चाणक्य इंतजार नहीं करते। क्योंकि अब तो हर पार्टी, हर घर में एक चाणक्य है।  

बिहार में चुनाव की तारीख का अभी एलान होना बाकी है। अगले  दो-ढाई महीने में बड़ी तादाद में राष्ट्रभक्त, धर्मनिर्पेक्ष, समाजसेवी के सर्टिफिकेट बांटे जाएंगे। बीजेपी ने शुरुआत कर दी है। हर पार्टी में ऐसा होना है। बड़ी तादाद में घर वापसी भी होगी।  भ्रम भी टूटेगा। कईयों को दृव्य ज्ञान की प्राप्ति होगी। भाई-मिलन होगा। बस देखते रहिए।  

गुरुवार, 16 जुलाई 2015

चलती ट्रेन मतलब बुद्धिजीवियों की सोसायटी

जब कभी दिल्ली से गांव जाता हूं। या फिर गांव से दिल्ली आने के लिए ट्रेन में बैठता हूं, एक गजब अहसास होने लगता है। ट्रेन जैसे-जैसे आगे बढ़ने लगती है अरस्तू सत्य लगने लगते हैं। समाज की परिकल्पना यथार्थ दिखने लगती है। ऐसा लगने लगता है कि ट्रेन, ट्रेन नहीं बल्कि एक सोसायटी है। बॉगी अपार्टमेंट की तरह लगने लगती है। कंपार्टमेंट फ्लैट की तरह। और अपना बर्थ बेडरूम जैसा।

चलती ट्रेन ऐसी सोसायटी में तब्दील हो जाती है, जहां सिर्फ बुद्धिजीवियों का वास होता है। ऐसे-ऐसे तर्कशास्त्री जिनका कोई तोड़ नहीं है। जो ये साबित कर देते हैं कि कराची या इस्लामाबाद अब तक हिंदुस्तान का हिस्सा इसलिए नहीं है क्योंकि यूएनओ में इन्होंने भाषण नहीं दिया। पता नहीं भारत सरकार इन्हें यूएनओ या फिर द्विपक्षीय वार्ता के लिए क्यों नहीं भेजती है। अपने तर्कों से ये संबंध प्रमाणित करने वाले डीएनए को भी बदल सकते हैं।

एक फ्लैट से दूसरे फ्लैट में छन-छन कर आती आवाज ये पुख्ता करती है कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। ये चाणक्य का मुल्क है। चाणक्य अब नहीं रहे तो क्या हुआ। उनको पीछे छोड़ने की चाहत रखने वाले राजनीति शास्त्र के पुरोधा बड़ी संख्या में पाए जाते हैं। चलती ट्रेन में जब एक बार बात सियासत की शुरू होती है तो ऐसे-ऐसे समीकरण निकालते हैं, कि पूछिए मत। अगर नरेंद्र मोदी, अमित शाह, राहुल गांधी या फिर लालू-नीतीश इनकी बात सुन लें तो कल से अपना राजनीतिक सलाहकार बना लेेंगे। बड़े अखबार के संपादक इनसे मिल लिए तो वो अखबार में हर दिन एक कॉलम इनसे  लिखवाने के लिए एग्रिमेंट कर लेंगे। टीवी के चैनलहेड ने देख लिया तो प्राइम टाइम के डिबेट शो का हिस्सा बनाने के लिए इनके घर के सामने पर्मानेंट ओवी वैन लगा कर छोड़ देंगे।

लोकसभा चुनाव 2014 से कुछ दिन पहले भी अगर राहुल गांधी इनसे मंत्र ले लेते तो वो जरूर प्रधानमंत्री बन जाते। राजनीति शास्त्र के ये ज्ञाता ऐसे बात करते हैं जैसे ये उनकी हर खूबी-कमजोरी से वाकिफ हैं। राहुल की तरह मोदी भी बड़ी भूल कर रहे हैं। एक अच्छे प्रधानमंत्री होने के बावजूद मोदी अब तक देश में अच्छे दिन इसलिए नहीं ला पाए क्योंकि वो इनसे मशविरा नहीं कर रहे हैं। इन्हें पता है कि दिल्ली के अगले विधानसभा चुनाव में केजरीवाल की जमानत जब्त हो जाएगी। अभी भी वक्त है, अगर लालू यादव या फिर नीतीश कुमार टेलीफोन से ही इनसे सलाह ले लेंगे तो बात बन जाएगी। वरना रिजल्ट तो चुनाव की तारीख के ऐलान से पहले ही घोषित कर दिया है।

बात शुरू होती है तो दिल्ली से निकलकर न्यूयॉर्क तक पहुंच जाती है। चर्चा ओबामा और अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव तक होती है। बॉबी जिंद अगर वाकई अमेरिका का राष्ट्रपति बनने को लेकर सीरियस हैं तो इनसे बात करनी चाहिए।

ये बुद्धिजीवी जानते हैं कि ट्रेन में बिकनेवाला खाना शुद्ध नहीं होता। ये भी पता है कि बिस्किट, कोल्डड्रिंक या चिप्स काफी महंगा बेचा जाता है। डुप्लिकेट रहने की संभावना ज्यादा रहती है। इसलिए खरीदकर नहीं खाते। इन्हें ये भी मालूम है कि ट्रेन में बिकनेवाली चाय में कोई स्वाद नहीं होता। गर्म पानी जैसा है। लेकिन इसलिए खरीदकर पी लेते हैं ताकि कि बेचनेवाले गरीब का कल्याण हो जाएगा।

चाय की चुस्की के साथ निकलनेवाला क्रिकेट का ज्ञान धोनी का नसीब बदलनेवाल होता है। धोनी के खेल में अब भी जान बची है लेकिन खुद को बदलना होगा। कप्तानी का तरीका बदलने की जरूरत  है। विराट कोहली जब से अनुष्का के साथ रहने लगा है तब से चौपट हो गया है। शॉट सेलेक्शन ठीक नहीं होता। इनके टिप्स मान लें तो बेहतर खेल सकता है। 2015 में भारत वर्ल्ड कप नहीं जीतेगा, इसकी भविष्याणी तो 2 साल पहले ही कर दी थी। आईपीएल में मैच फिक्सिंग होती है ये भी इन्हें पता था। लेकिन इनको क्या मतलब।

ये इनते बड़े बुद्धिजीवी हैं जिनका सहयोग अगर सरकार ले तो हिंदुस्तान दुनिया में हर क्षेत्र में शीर्ष पर पहुंच सकता है लेकिन इनके साथ वैसा ही भेदभाव किया जा रहा है जैसे एमबीबीएस, एमडी या एमएस डॉक्टर और बवासीर, नपुंसकता, गुप्त रोग धातु स्राव जैसी गंभीर बीमारी का चुटकी में इलाज करनेवालों में भेदभाव होता है। एक बड़े-बड़े अस्पताल में रहकर भी मरीजों की जान नहीं बचा पाते और दूसरे ट्रेन के टॉयलेट में, रेलवे लाइन के किनारे दीवार पर, आरटीवी बसों में इश्तेहार देकर ही जनकल्याण करते हैं। 

ट्रेन की खिड़कियों से खेत दिखने के बाद देश में कृषि : इतिहास, वर्तमान, भविष्य की स्थितिजैसे गंभीर विषय पर परिचर्चा शुरू हो जाती है। सूखा, बाढ़ से लेकर किसानों की खुदकुशी तक चर्चा की जाती है। इसको लेकर सरकार को जिम्मेदार ठहराते हैं। इस समस्या के समाधान के लिए अचूक उपाय बताते हैं। इनके बताए उपाय सरकार मान लें तो खेती और किसान की समस्या चुटकी में निपट सकती है। लेकिन इनसे कोई पूछता ही नहीं। यही देश का दुर्भाग्य है।

कुछ लोग तर्क-कुतर्कों की चरम सीमा पर पहुंच जाते हैं। जिन्हें बाकी लोग मग्न होकर सुनते रहते हैं। जैसे उन्हें पहलीबार ज्ञान के सागर में डुबकी लगाने का मौका मिला है। हां, कुछ अपरोजक टाइप के लोग भी रहते हैं, जो इन महाज्ञानियों के ज्ञान की दो घूंट पीने के बजाय सोते रहते हैं या फिर किताबों या मोबाइल में मग्न रहते हैं। ये ऐसे अपवाद माने जाते हैं, जिनका राष्ट्र निर्माण से कोई लेनादेना नहीं है। देश इनके लिए कोई मायने नहीं रखता। इसीलिए राष्ट्र हित के बारे में सोचने की सारी जिम्मेदारी इन्हीं बुद्धिजीवियों पर रहता है।