रविवार, 6 नवंबर 2016

सियासत में सेहत 'धुआं-धुआं'

दिल्ली में पिछले 2-3 दिनों से चारों तरफ धुआं-धुआं है। दोपहर में अंधेरा सा है। कोहरा नहीं है। हवा में घुल चुके जहर का असर है। प्रदूषण की चादर से आसमान लिपटी हुई है। दिल्ली की सांसें फूल रही है। यकीन मानिए...दिल्ली की एक बड़ी आबादी ने ऐसी भयानक तस्वीर कभी नहीं देखी होगी। वाकई दिल्ली गैस चैंबर बन चुकी है। दिल्ली में प्रदूषण ने पिछले 17 बरस का रिकॉर्ड तोड़ दिया है। प्रदूषण मापने वाली मशीन भी छोटी पड़ी गई। तय मानकों से 17 गुना ज्यादा खतरानक एयर क्वालिटी हो चुकी है दिल्ली की। 
         
जिस दिल्ली में पीएम से लेकर तमाम मंत्री, अफसरान, सीएम तक रहते हैं। उस दिल्ली का दम फूल रहा है। देश की सबसे बड़ी बड़ी अदालत है। देश की दिशा तय करनेवाल दिल्ली बीमार हो रही है। बेचैन हैं दिल्ली वाले। कौन बचाएगा? प्रदूषण रिकॉर्ड तोड़ रहा है। कौन रोकेगा? गैस चैंबर बन चुकी है दिल्ली। कौन बाहर निकालेगा? हवा में बदबू है। लोग सांस कैसे लेंगे?  
           
दिल्ली में तीन निज़ाम हैं केंद्र, राज्य और एमसीडी। लेकिन तीनों लाचार दिख रहे हैं। दिल्ली को बचाने के लिए कोई बड़ा उपाय ढूंढने की बजाय सियासत में उलझे हुए हैं। एक दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं। बैठक पर बैठक कर रहे हैं। दिल्ली सरकार कहती है कि प्रदूषण के लिए हरियाणा और पंजाब की सरकार जिम्मेदार है। क्योंकि दोनों राज्यों में फसलों को जलाया जा रहा है। अब जब स्थिति हद से गुजर गई है तो पंजाब के सीएम किसानों को फसल नहीं जलाने की अपील की है। लेकिन प्रदूषण की सियासत में दिल्ली वाले पिस रहे हैं। 
           
जहर घुली हवा जब सिर पर मंडराने लगी। जब लोगों की सांसें फूलने लगी। तब जाकर केजरीवाल को आम आदमी की फिक्र आई। मंत्रियों को इकट्ठा किया। कई बड़े फैसले लिए। स्कूल बंद। फैक्ट्रियां बंद। जेनरेटर्स बंद। कंस्ट्रक्शन बंद। डिमोलिशन बंद। डीजल गाड़ी बंद। बहुत कुछ बंद। अब कलेकिन केजरीवाल के फैसले कितने कारगर होंगे, इसे देखना है। लेकिन जिस तरह से फैसला लेते-लेते केजरीवाल ने देरी की, उससे सवाल तो उठेंगे ही। क्योंकि पिछले बरस ही कोर्ट ने सरकार को चेता दिया था। 
             
सवाल केंद्र सरकार पर भी उठेंगे। क्योंकि इसी दिल्ली में प्रधानमंत्री भी रहते हैं। मोदी के तमाम मंत्री भी रहते हैं। उन्होंने क्या किया। क्या सियासत की आड़ लेकर दिल्ली को छोड़ देना जायज है? अगर केजरीवाल सरकार निंद में सोती रही, अगर खुदकुशी करनेवाले पूर्व फौजी के शोक में डूबी रही, एलजी से तकरार में उलझी रही तो इसका मतलब ये नहीं कि केंद्र सरकार भी दिल्लीवालों को भगवान भरोसे छोड़े दे? क्या मोदी को, मोदी के मंत्रियों को  दिल्ली की आवोहवा नहीं दिख रही है?
           
असल में शहाद और खुदकुशी पर सियासत करनेवालों को स्मॉग में भी कुछ फायदा दिखने लगा। अगर ऐसा नहीं है तो फिर जब लोग बीमारी की दहलीज पर खड़े हैं तो मिलकर क्यों कोई ठोसा उपाय किया जा रहा है? लोगों को साफ हवा भी क्यों मुहैया नहीं करा पाती है सरकार? जब पिछले साल ही स्थिति बेकाबू हो गई थी तो फिर इस साल भी पहले से क्यों नहीं तैयारी की गई? 

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