गुरुवार, 26 जनवरी 2017

राजनीति का परिवारवाद

राजनीति में परिवारवाद का वटबृक्ष वक्त के साथ विशाल होता जा रहा है। कम्यूनिस्ट पार्टियों को छोड़कर कमोबेश हर दल में एक जैसी स्थिति है। सियासी दलों में हर डाल से एक बृक्ष बनता चला जा रहा है। ताज्जुब की बात ये है कि हर कोई राजनीति में परिवारवाद के खिलाफ बोलता है, लेकिन इसे रोकने की बजाय हर नेता इसे विस्तार करने की दिशा में मौन सहमति दे देता चला जाता है। हर नेता दूसरे दल के परिवारवाद के खिलाफ जमकर बोलता है, लेकिन खुद आइने की तरफ देखने से कतराता है।

सच ये है कि लोकतंत्र में परिवारवाद कैंसर सरीखे है। लेकिन इसका इलाज करने की बजाय हर दल इसे स्वीकार करते हुए बढ़ रहा है। एक बार फिर परिवारवाद की चर्चा हो रही है। 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव में जिस तरीके से टिकटों का बंटवारा हुआ, उससे सवाल उठने शुरू हो गए हैं। खासकर जब परिवारवाद को लेकर कांग्रेस पर तीखा तंज कसने वाली बीजेपी की लिस्ट में परिवारवाद को खाद-पानी दिया गया। बड़े नेताओं के बेटे-बहू, बेटी-दामाद और रिश्तेदारों को टिकटों से नवाजा गया।

संयोग देखिए कि जिस उत्तर प्रदेश में उम्मीदवारों को लेकर बीजेपी पर परिवारवाद का सबसे बड़ा आरोप लग रहा है उसी यूपी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सार्वजनिक मंच से अपने नेताओं से अपील की थी कि अपने रिश्तेदारों के लिए टिकट न मांगें। लेकिन 10 दिन बाद जब टिकट तय करने के लिए बैठकों का दौर चला तो बड़े नेताओं के रिश्तेदारों के लिए पैरवी पत्र पेश कर दिए गए। उस बैठक में प्रधानमंत्री मोदी भी थे। अपनी पार्टी के नेताओं को नसीहत देने वाले मोदी ने उस बैठक में क्या कहा, ये मुझे नहीं पता, लेकिन जब लिस्ट बाहर निकली तो उसमें से परिवारवाद टपक रहा था।

अब सवाल उठता है कि मोदी की नसीहत भी टिकट बंटवारे के वक्त क्यों बेअसर हो गई? आखिर क्यों ज़मीन पर झंडा ढोने वाले मुंह ताकते रह गए और बडे नेताओं के साहबजादे/ साहबजादियां के घर टिकट पहुंच गया? एक से दो बार खुद निर्वाचित हो जाने के बाद नेता क्यों अपने परिवारवालों के लिए राजनीति में आगे बढ़ने की सीढ़ी बनते चले जाते हैं? क्यों अपने बेटे-बहू, बेटी-दामाद और रिश्तेदारों की जगह पक्का करने की जुगाड़ में सबकुछ दांव पर लगा देते हैं?

दरअसल इसमें कहीं से भी दो राय नहीं है कि मौजूदा दौर में राजनीति को नफा-नुकसान की कसौटी पर कसा जाने लगा है। जाहिर है कि जब हिसाब-किताब लाभ और हानि को लेकर होगी। जब राजनीति करने वाले नेता खुद को फायदे और नुकसान के तराजू में तौलेंगे तो सेवा भाव का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। ऐसे में राजनीति में समाजसेवा की भावना को सूली पर टांग दिया गया है।

यानी बदलते दौर में संसदीय राजनीति का मिज़ाज ही मुनाफा कमाने वाली कंपनी सरीखे हो चुकी है। जिसका मकसद शेयर होल्डर्स को फायदा पहुंचाने से ज्यादा है नहीं। ऐसे में कंपनी चलाने वाले नेता, या फिर कहिए कि संचालक मंडल में शामिल बड़े-बड़े नेताओं के परिवार के सदस्य ही अगर शेयर होल्डर्स हो जाएं तो फिर हर्ज क्या है? सच यही है कि हर्ज सिर्फ उन्हीं कार्यकर्ताओं को होती है, जो टिकट के इंतजार में झंडा ढोते-ढोते अपनी जवानी को दांव पर लगा दते हैं और अंत में कुछ नहीं मिलता। बाकी तो उन्हीं ऊपर से टपकाए गए नेता नेता के पीछे-पीछे चल देते हैं। जिन बड़े नेताओं को परिवारवाद पसंद नहीं भी है, वे जातीय, क्षेत्रीय, धार्मिक, तमाम तरह के समीकरण में उलझकर रह जाते हैं।

इस दौर की राजनीति को देखकर किसे यक़ीन होगा कि देश के पहले गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने तो अपने बेटे को इतनी हिदायत देते हुए कहा था कि “मेरे नाम का कभी दुरुपयोग मत करना। जब तक मैं दिल्ली में हूं, तब तक यहां से जितनी दूर रह सकते हो रहना।” लेकिन संयोग देखिए की मौजूद गृहमंत्री राजनाथ सिंह के बेटे को सिटिंग विधायक का टिकट काटकर विधानसभा चुनाव में उम्मीदवार बनाया गया है। राजनाथ सिंह के बेटे पंकज सिंह को कहां से टिकट दिया जाए, इस बात को लेकर कई दिनों तक मंथन हुआ, आलम ये कि सबसे अंतिम में सीट फाइनल हुआ और नामांकन के आखिरी दिन पंकज सिंह ने पर्चा दाखिल किया।  

सिर्फ राजनाथ सिंह ही क्यों, बीजेपी के बड़े-बड़े दिग्गजों ने अपने रिश्तेदारों को टिकट दिलवाई है। लालजी टंडन के बेटे आशुतोष टंडन को टिकट मिला। सांसद हुकूम सिंह की बेटी मृगांका सिंह को टिकट दिया गया। सासंद सर्वेश सिंह के बेटे सुशांत सिंह को विधानसभा का उम्मीदवार बनाया गया। सांसद ब्रजभूषण शरण सिंह के बेटे प्रतीक भूषण को टिकट मिला। जबकि मोहनलालगंज से सांसद कौशल किशोर की पत्नी भी विधायक बनने के लिए ताल ठोक रही हैं। यूपी के पूर्व सीएम कल्याण सिंह को पोते और बहू दोनों को टिकट दिया गया है। कल्याण सिंह के बेटे पहले से सांसद हैं।

सिर्फ उत्तर प्रदेश ही क्यों उत्तराखंड में भी कमोबेश ऐसी ही स्थति है। बीजेपी के टिकट पर पूर्व मुख्यमंत्री बीसी खंडूरी की बेटी चुनाव लड़ रही हैं। कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल हुए यशपाल आर्य और उनके बेटे दोनों चुनावी मैदान में हैं। एक और पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा खुद चुनाव नहीं लड़ रहे हैं लेकिन बेटे के टिकट के लिए पार्टी को राजी कर लिया।

पंजाब में तो अकाली दल भी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह है। परिवार का हर सदस्य राजनीति के परिवारवाद में योग्दान दे रहा है। मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल खुद चुनाव लड़ रहे हैं। बेटे सुखबीर सिंह बादल भी मैदान में हैं। बहू हरसिमरत कौर मोदी मंत्रिमंडल में मंत्री हैं। और हरसिमरत का भाई भी विधानसभा चुनाव लड़ रह है।

मुलायम सिंह यादव का तो पूरा परिवार ही राजनीति को समर्पित है। सिर्फ छोटे बेटे को छोड़कर। हालांकि छोटी बहू ने इसकी भी भरपाई कर दी है। लालू यादव के परिवार का भी यही हाल है। दो-दो बेटे बिहार सरकार में मंत्री हैं। बेटी राज्यसभा सदस्य। हरियाण में तमाम ‘लाल’ के लाल राजनीति में परिवारवाद को ही बढ़ाते रहे। भूपिंदर हुड्डा भी इसमें पीछे नहीं रहे।

राजस्थान से लेकर एमपी तक सिंधिया परिवार का राजनीति में परिवारवाद में बेहद महत्वपूर्ण योग्दान है। सिंधिया ही क्यों दिग्विजय सिंह का परिवार भी पीछे कहां है। दक्षिण में चले जाइए तो फिर करुणानिधि का बड़ा परिवार हो या फिर YSR रेड्डी का। या फिर रेड्डी बंधु के नाम से विख्यात जनार्दन रेड्डी का ही परिवार क्यों न हो।

जम्मू-कश्मीर में अब्दुला और मुफ्ती दोनों फैमिली परिवारवाद का सशक्त हास्ताक्षर है। हर पार्टी में पिता का सियासी उत्तराधिकारी भी बेटा ही है। किस-किस का। कहां-कहां से नाम लीजिएगा। हर जगह आपको परिवारवाद की झलक दिख जाएगी। सच तो है कि जितनी भी क्षेत्रिय पार्टियां है, वहां राजतंत्र है। सब एक परिवार के भरोसे चलता है। वे पार्टियां किसी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी से ज्यादा नहीं है। और हर कोई अपनों को अपनी ही पार्टी में आगे बढ़ाने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहता है।

हालांकि इस सब के बीच याद कीजिए उस दौर को जब विधानसभा चुनाव में बेटे को टिकट की पेशकश पर बिहार के पहले मुख्यमंत्री डॉक्टर श्रीकृष्ण सिंह ने पार्टी से दो टूक कह दिया था कि “तब मैं खुद चुनाव नहीं लड़ूंगा”। पार्टी के बड़े नेता सकते में आ गए और उनके बेटे का टिकट रोक दिया गया। डॉक्टर श्रीकृष्ण सिंह के निधन के बाद उनके बेट विधानसभा की चौखट तक पहुंच पाए।

बिहार के ही एक और मुख्यमंत्री रहे कर्पूरी ठाकुर ने भी अपने बेटे रामनाथ ठाकुर को टिकट दिए जाने की बात पर कमोबेश ऐसा ही कहा था।

इतिहास में ऐसे कई नेता हुए भी लेकिन ये महज उदराण बनकर क्यों रह गए। इन्होंने जो मोटी लकीरें खींची थी, उसे क्यों मिटा दिया गया। इतिहास के पन्नों को पलटने पर इसके गुनहगार भी मिल जाएंगे। हर कोई अपनी सुविधा के मुताबिक एक नाम ढूंढ लेगा। जिसे वो सियासत में परिवारवाद का प्रेरणास्त्रोत बताकर खुद को सही ठहराने की कोशिश भी करेगा। लेकिन सबसे बड़ा सवाल तो ये है कि आखिर कब तक इतिहास के उन काले धब्बे को उदाहरण के तौर पर पेश करते रहेंगे। सच तो ये है कि संसदीय लोकतंत्र को मजबूती तभी मिलेगी, जब ज़मीन से जुड़ा कार्यकर्ता सत्ता के शीर्ष पर पहुंचेगा। परिवारवाद लोकतंत्र की बुनियाद को अंदर ही अंदर खोखला और ज्यादा खोखला करता चला जाएगा। इसे सियासी पार्टियों के साथ-साथ वोट देने वाले जनता को भी सोचना पड़ेगा।

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